25 March 2022 12:20 PM
जोग संजोग टाइम्स बीकानेर,
जब आम आदमी अधिकार मांगता है… राजनीतिक दुनिया में हलचल बढ़ जाती है। समाज – समुदाय अपने विकास के लिए अधिकार की बात करते हैं मगर जवाब में राजनीति गूंजती है। इस बात को गली मोहल्ले शहर जिले संभाग राज्य देश और देशों के संदर्भों में लेकर आत्म विमर्श कर देखें। फिलवक्त, महायुद्ध के भय के बीच एक देश के लाखों नागरिक पलायन पर मजबूर हो रहे हैं। लगभग पौन सौ वर्ष पहले हम भारत में विभाजन भोग चुके हैं। मैं स्वयं उस त्रासदी से पीड़ित एक परिवार की दूसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहा हूं। मेरे 92 वर्षीय पिता तत्कालीन विभक्त विभाजन के साक्षी होने की वजह से मानसिक कमजोरी के शिकार हुए और आज वे देख नहीं पाते। शारीरिक व्याधियों से घिरे दो वर्ष से पूर्णतया बिस्तर पर हैं। लेकिन बातें अब भी तत्कालीन पीड़ा और काल की गति से बिछड़ी अपनी स्मरणीय समृद्धि की करते हैं। और हम कारखाना एक्ट के तहत ईपीएफ की पेंशन हजार रुपयों को सम्मानजनक राशि में बढ़ाने के अनुनय विनय के सिवाय सरकार को और कुछ नहीं कह पाते।
देश-दुनिया में पसरी अफरातफरी की इस बेला में राजनीति से बोझिल माहौल में भी जब आम आदमी खुद के दम पर अपने वर्ग, अपने समाज के हित में अधिकार मांगने के लिए मुट्ठियां तान लेता है तब भी…, नहीं चाहते हुए भी राजनीति की बू से घिरा लगता है। क्यों… ? सवाल यह है कि…जब आम आदमी अधिकार मांगता है तो कैसा महसूस होता है… ? उसे खुद को, उसके साथियों को, उसके अधिकारियों को, उसके परिवारजनों को ? उसके पड़ोसियों को… उसके… उसके… उसके और उसके उन सब को… जो उसके आसपास हैं… जिनके दायरे में वह है ?
जरूरी नहीं कि हर कोई वाजिब अधिकारों की ही मांग करता हो… दूसरे पहलू भी गौरतलब होते हैं। क्योंकि… अधिकार की बात जहां आती है वहां शासन और समाज के नियम कायदे, कानून, परंपरागत जीवनशैली पहले से मौजूद होना स्वाभाविक है। राजनीति होना भी बड़ी बात नहीं। कुछ वर्ष पूर्व मार्च-अप्रैल 2014 में ( बीकानेर में राजस्थान राज्य अभिलेखागार ) एक सेमिनार में सदियों पहले की परिस्थितियों में लोगों के एक रियासत से दूसरी रियासत की ओर पलायन पर विषय विशेषज्ञ की विवेचना सुनने का अवसर मिला था। इन प्रखर वक्ता का कहना था, तत्कालीन परिस्थितियों में जब आम आदमी की आय बढ़ने का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता तब भी उस पर करों का बोझ लाद दिया जाता तब वह राहत पाने एक से दूसरी रियासत की ओर बढ़ता मगर … चहुंओर एक-सी स्थिति में उसे राहत मिलना तो दूर बल्कि पीढ़ियों से स्थापित अपने गृह-गांव, जमीन-जायदाद से भी वंचित हो जाता था। जैसे विभाजन के दर्द को जी रहे हम लोग और हमारा समाज।
विचार उमड़ता है… … ऐसे में आम आदमी के अधिकार की बात कौन उठाए… वह खुद अपने अधिकार कैसे और किससे मांगे ? स्थितियों से संघर्ष कर शायद वह सफल हो सके लेकिन पलायन को तो पराजय के समान माना जाता है। यूं भी अधिकांश मामलों में पलायन कर्ता अकेला हो जाता है … या नहीं ? पलायन चाहे सामूहिक रूप से होता रहा हो किंतु कुछ परिस्थितियों को छोड़ कर पलायन को अच्छी बात के रूप में नहीं लिया जा सकता…। क्योंकि… कतिपय अपवाद की स्थितियों को छोड़ कर संभवतः अधिकार एक अकेले का जाया जन्मा नहीं हो सकता। अधिकार कम से कम दो जनों के मध्य होना चाहिए… शायद… ! इस सोच के मध्य नजर अधिकार पाने वाले को दूसरे, तीसरे… चौथे… अनेकानेक पक्षों के अधिकार का भी भान होना चाहिए… शायद ऐसा हो… शायद ऐसा न होता हो।जब आम आदमी अधिकार मांगता है तो सर्वप्रथम उसे यह महसूस होता होगा… वह जागरूक हो गया है अपने अधिकारों के प्रति। मगर क्या उसे यह महसूस नहीं होता होगा कि वह अन्य पक्षों के लिए भी जागरूक है… या फिर … उसे दूसरों के प्रति भी जागरूक होना चाहिए ! कई मायनों में आम आदमी का अधिकार मांगना बहुत अच्छा लगता है… खासतौर से तब जब उसके मांगे हुए अधिकारों में ‘‘सर्व समाज’’ का भी लाभ निहित होता है। समाज और शासन से जुड़े विषयों पर जागरूकता एक अच्छी बात है मगर राजनीति के नजरिये से जागरूकता के कई पहलू दिखाई देते हैं… खासतौर से चुनावी वातावरण में ऐसा महसूस होता है मानो अधिकारों की बात कह कर राजनीतिक दुनिया से जुड़े लोग अपने वोट बैंक के सदस्य बढ़ाने की मार्केटिंग करने निकल पड़े हों। ऐसे में आम आदमी जब खुद के दम पर अपने वर्ग, अपने समाज के हित में अधिकार मांगने के लिए मुट्ठियां तान लेता है तब भी…, नहीं चाहते हुए भी राजनीति की बू से घिरा लगता है।
जोग संजोग टाइम्स बीकानेर,
जब आम आदमी अधिकार मांगता है… राजनीतिक दुनिया में हलचल बढ़ जाती है। समाज – समुदाय अपने विकास के लिए अधिकार की बात करते हैं मगर जवाब में राजनीति गूंजती है। इस बात को गली मोहल्ले शहर जिले संभाग राज्य देश और देशों के संदर्भों में लेकर आत्म विमर्श कर देखें। फिलवक्त, महायुद्ध के भय के बीच एक देश के लाखों नागरिक पलायन पर मजबूर हो रहे हैं। लगभग पौन सौ वर्ष पहले हम भारत में विभाजन भोग चुके हैं। मैं स्वयं उस त्रासदी से पीड़ित एक परिवार की दूसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहा हूं। मेरे 92 वर्षीय पिता तत्कालीन विभक्त विभाजन के साक्षी होने की वजह से मानसिक कमजोरी के शिकार हुए और आज वे देख नहीं पाते। शारीरिक व्याधियों से घिरे दो वर्ष से पूर्णतया बिस्तर पर हैं। लेकिन बातें अब भी तत्कालीन पीड़ा और काल की गति से बिछड़ी अपनी स्मरणीय समृद्धि की करते हैं। और हम कारखाना एक्ट के तहत ईपीएफ की पेंशन हजार रुपयों को सम्मानजनक राशि में बढ़ाने के अनुनय विनय के सिवाय सरकार को और कुछ नहीं कह पाते।
देश-दुनिया में पसरी अफरातफरी की इस बेला में राजनीति से बोझिल माहौल में भी जब आम आदमी खुद के दम पर अपने वर्ग, अपने समाज के हित में अधिकार मांगने के लिए मुट्ठियां तान लेता है तब भी…, नहीं चाहते हुए भी राजनीति की बू से घिरा लगता है। क्यों… ? सवाल यह है कि…जब आम आदमी अधिकार मांगता है तो कैसा महसूस होता है… ? उसे खुद को, उसके साथियों को, उसके अधिकारियों को, उसके परिवारजनों को ? उसके पड़ोसियों को… उसके… उसके… उसके और उसके उन सब को… जो उसके आसपास हैं… जिनके दायरे में वह है ?
जरूरी नहीं कि हर कोई वाजिब अधिकारों की ही मांग करता हो… दूसरे पहलू भी गौरतलब होते हैं। क्योंकि… अधिकार की बात जहां आती है वहां शासन और समाज के नियम कायदे, कानून, परंपरागत जीवनशैली पहले से मौजूद होना स्वाभाविक है। राजनीति होना भी बड़ी बात नहीं। कुछ वर्ष पूर्व मार्च-अप्रैल 2014 में ( बीकानेर में राजस्थान राज्य अभिलेखागार ) एक सेमिनार में सदियों पहले की परिस्थितियों में लोगों के एक रियासत से दूसरी रियासत की ओर पलायन पर विषय विशेषज्ञ की विवेचना सुनने का अवसर मिला था। इन प्रखर वक्ता का कहना था, तत्कालीन परिस्थितियों में जब आम आदमी की आय बढ़ने का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता तब भी उस पर करों का बोझ लाद दिया जाता तब वह राहत पाने एक से दूसरी रियासत की ओर बढ़ता मगर … चहुंओर एक-सी स्थिति में उसे राहत मिलना तो दूर बल्कि पीढ़ियों से स्थापित अपने गृह-गांव, जमीन-जायदाद से भी वंचित हो जाता था। जैसे विभाजन के दर्द को जी रहे हम लोग और हमारा समाज।
विचार उमड़ता है… … ऐसे में आम आदमी के अधिकार की बात कौन उठाए… वह खुद अपने अधिकार कैसे और किससे मांगे ? स्थितियों से संघर्ष कर शायद वह सफल हो सके लेकिन पलायन को तो पराजय के समान माना जाता है। यूं भी अधिकांश मामलों में पलायन कर्ता अकेला हो जाता है … या नहीं ? पलायन चाहे सामूहिक रूप से होता रहा हो किंतु कुछ परिस्थितियों को छोड़ कर पलायन को अच्छी बात के रूप में नहीं लिया जा सकता…। क्योंकि… कतिपय अपवाद की स्थितियों को छोड़ कर संभवतः अधिकार एक अकेले का जाया जन्मा नहीं हो सकता। अधिकार कम से कम दो जनों के मध्य होना चाहिए… शायद… ! इस सोच के मध्य नजर अधिकार पाने वाले को दूसरे, तीसरे… चौथे… अनेकानेक पक्षों के अधिकार का भी भान होना चाहिए… शायद ऐसा हो… शायद ऐसा न होता हो।जब आम आदमी अधिकार मांगता है तो सर्वप्रथम उसे यह महसूस होता होगा… वह जागरूक हो गया है अपने अधिकारों के प्रति। मगर क्या उसे यह महसूस नहीं होता होगा कि वह अन्य पक्षों के लिए भी जागरूक है… या फिर … उसे दूसरों के प्रति भी जागरूक होना चाहिए ! कई मायनों में आम आदमी का अधिकार मांगना बहुत अच्छा लगता है… खासतौर से तब जब उसके मांगे हुए अधिकारों में ‘‘सर्व समाज’’ का भी लाभ निहित होता है। समाज और शासन से जुड़े विषयों पर जागरूकता एक अच्छी बात है मगर राजनीति के नजरिये से जागरूकता के कई पहलू दिखाई देते हैं… खासतौर से चुनावी वातावरण में ऐसा महसूस होता है मानो अधिकारों की बात कह कर राजनीतिक दुनिया से जुड़े लोग अपने वोट बैंक के सदस्य बढ़ाने की मार्केटिंग करने निकल पड़े हों। ऐसे में आम आदमी जब खुद के दम पर अपने वर्ग, अपने समाज के हित में अधिकार मांगने के लिए मुट्ठियां तान लेता है तब भी…, नहीं चाहते हुए भी राजनीति की बू से घिरा लगता है।
RELATED ARTICLES
18 September 2025 12:36 PM
© Copyright 2021-2025, All Rights Reserved by Jogsanjog Times| Designed by amoadvisor.com